शैक्षिक प्रक्रिया में सुधार के नाम पर असंवैधानिक आदेश, दमन और निजीकरण
बिहार में एक साथ 25 लाख बच्चों का नाम स्कूल से काट दिया गया है और शिक्षक संघों को अमान्य करार देकर शिक्षकों के बोलने तक पर पाबंदी लगा दी गयी है। आजाद भारत की शिक्षा में प्रांतीय स्तर पर ऐसे अनाचार ...
गाँव मेरा आजकल दहशतज़दा है दोस्तो।
इसकी क़िस्मत में न जाने क्या लिखा है दोस्तो।
बिहार की शिक्षा-व्यवस्था अराजकता और आतंक के दौर से गुजर रही है। इस अराजकता में न तो संवैधानिक प्रावधानों की परवाह है, न बिहार के सामाजिक परिवेश की समझ है और न ही इसके पीछे कोई शैक्षिक दर्शन है। बल्कि असंवैधानिक, असामाजिक, अशैक्षिक और अमानवीय प्रशासनिक आतंक के द्वारा शिक्षा में कॉरपोरेट को स्थापित किया जा रहा है।
पहले बच्चों की बात लेते हैं, फिर शिक्षकों की।
संविधान के अनुच्छेद 21 (क) में देश के 6 से 14 आयुवर्ग के तमाम बच्चों को ‘मुफ़्त एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिकार’ दिया गया है। यह अधिकार अनुच्छेद 21 के उसी मौलिक अधिकार का विस्तार है, जो किसी भी नागरिक को जीवन का अनिवार्य अधिकार देता है और बिना किसी संगत न्यायिक प्रक्रिया के इसे किसी भी सूरत में निरस्त नहीं किया जा सकता है। इस जीवन के अधिकार के साथ जोड़कर दिये गये शिक्षा अधिकार का अर्थ है कि प्रत्येक बच्चे के लिए पढ़ना अनिवार्य है और किसी भी स्थिति में और किसी भी क़ानून या आदेश के द्वारा उसके पढ़ने के अधिकार को बर्खास्त नहीं किया जा सकता है।इसलिए इस अधिकार के मुकम्मल अनुपालन के लिए कुछ दिन पहले पुलिस थानों तक को स्कूल से बाहर के बच्चों को स्कूल से जोड़ने का दायित्व दिया गया था। इस अधिकार का पूरी तरह अनुपालन करने के लिए आपदाओं और त्रासदियों – बाढ़, भूकंप, दंगों आदि में लगाये गये शिविरों में भी बच्चों के पढ़ने की व्यवस्था की जाती रही है।
ध्यातव्य है कि मूल अधिकार अपरिवर्तनीय और असंशोधनीय हैं और इसे छीनने या न्यून करने वाला कोई क़ानून न तो बनाया जा सकता है और न ही कोई आदेश दिया जा सकता है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 13 (2) यह व्यवस्था देता है कि “राज्य कोई ऐसी विधि नहीं बनाएगा, जो इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों को छीनती है या न्यून करती है और इस खंड के उल्लंघन में बनायी गयी प्रत्येक विधि उल्लंघन की मात्रा तक शून्य होगी।” मौलिक अधिकारों की अनुल्लंघनीयता को अनुच्छेद 364 (3) और (4) में फिर से सुनिश्चित किया गया है, जहाँ संविधान संशोधन की प्रक्रिया का उल्लेख किया गया है, कि “अनुच्छेद 13 की कोई भी बात इस अनुच्छेद के अधीन किये गये किसी संशोधन को लागू नहीं होगी।” भाग 4 के नीति निदेशक तत्वों के अनुच्छेद 39 (ङ), (च), 45, 46 आदि में भी राज्यों को शिक्षा अधिकार, बच्चों के गरिमामय विकास, बालश्रम के निषेध आदि का निर्देश दिया गया है।
संविधान के इतने अनमनीय प्रावधानों के बावजूद दोहरे नामांकन की काल्पनिक अवधारणा के आधार पर बिहार में विगत दिनों लगभग 25 लाख बच्चों को स्कूल से निष्कासित कर दिया गया। सरकारें सभी बच्चों को विद्यालय लाने के प्रति उदासीन और निष्क्रिय रहती रही हैं। लेकिन दुनिया के इतिहास में शायद पहली बार ऐसा हुआ है स्कूल में नामांकित लगभग 25 लाख बच्चों को एकबारगी एक निराधार तर्क देकर निष्कासित कर दिया गया है। शिक्षा अधिकार को जीवन के अधिकार के साथ जोड़कर देखने पर यह लगभग 25 लाख बच्चों का एक झटके में नरसंहार दिखाई देगा। ज्ञात इतिहास के किसी भी काल में यह अघटित घटना है।
यह एक अवधारणात्मक भूल-मात्र नहीं है। बल्कि इस अभूतपूर्व निष्कासन के पीछे एक सुनियोजित मंशा है। अपर मुख्य सचिव ने ज़िलाधिकारियों को निर्देशित करते हुए अपने पत्र, जिसका ज्ञापांक 257/C, दिनांक 02-09-2023 है, में निर्देशित किया है कि “यदि ऐसे 10 प्रतिशत छात्रों का भी नामांकन रद्द किया गया, जो केवल DBT के उद्देश्य से यहाँ नामांकित हैं और पढ़ते कहीं और हैं तो राज्य को लगभग रूo 300 करोड़ की सीधी बचत होगी।” जबकि दोहरे नामांकन का पता लगाने के लिए कोई अध्ययन या सर्वे नहीं किया गया है। इससे ज़ाहिर होता है कि ‘10 प्रतिशत बच्चों के नाम काट ही देने हैं’ के पूर्वनिर्धारित निर्णय के अनुसार बच्चों के नाम काटे गए ताकि DBT के पैसे बचाये जा सकें और मध्याह्न भोजन की रक़म कम की जा सके। यह पहले गोली मारकर फिर उसे अपराधी करार देने जैसा है। क़ानून की औपचारिक भाषा में यह टारगेट किलिंग है।
ज्ञात हो कि बिहार में शिक्षा की ऐसी दुर्गति कर दी गयी है कि सरकारी विद्यालयों में अब दलित, आदिवासी, पिछड़ा आदि अत्यंत कमजोर आर्थिक समुदाय के बच्चे ही बच गये हैं। सरकारी विद्यालयों के प्रति विश्वसनीयता के अभाव के कारणों को दूर करने की कभी चिंता नहीं की गयी। लेकिन कमजोर वर्ग के उन बच्चों को स्कूल से निकाल देने में पूरी तत्परता बरती गयी, जिन बच्चों को उनके वंश में पहली बार स्कूल की चहारदीवारी के भीतर बड़ी मशक़्क़त के बाद दाखिल कराया जा सका था। अब इन बच्चों को फिर से बालश्रम की ओर प्रवृत्त होने का अवसर दिया गया है और उस परिवार को इतिहास में फिर से 50 साल पीछे ढकेल दिया गया है। संविधान की यह अवमानना और सामाजिक अन्याय की यह परिघटना और ज़्यादा अवाक कर देती है, जब सामाजिक न्याय के नारे के साथ समाजवादियों की सरकार में ऐसा अन्याय होता हुआ देखते हैं।
यह भी ध्यातव्य है कि बिहार की साक्षरता राष्ट्रीय औसत साक्षरता के मुक़ाबले लगातार पिछड़ती जा रही है (वर्ष 1951 और वर्ष 2011 की जनगणना में साक्षरता की तुलना देखें), बच्चों के सीखने के स्तर में लगातार गिरावट आती जा रही है (देखें असर की रिपोर्ट में वर्ष 2012 और वर्ष 2023 की तुलना), सभी प्रकार के प्राथमिक विद्यालयों में नामांकन लगातार घटता जा रहा है ( देखें UDISE+ वर्ष 2025-16 और वर्ष 2021-22 में नामांकन की तुलना), शिक्षा अधिकार के 12 वर्ष व्यतीत हो जाने के बावजूद अभी तक 11.1 प्रतिशत ही अनुपालन हो सका है (लोकसभा में शिक्षामंत्री का जवाब), नयी बहाली के बावजूद शिक्षकों के अभी भी ढाई लाख स्वीकृत पद ख़ाली पड़े हैं (विधानसभा में शिक्षामंत्री के जवाब के आधार पर), दिसंबर माह आ जाने के बावजूद अभी तक लगभग 30 प्रतिशत छात्र बिना किताबों के ही पढ़ रहे हैं, आज़ादी के 75 वर्षों के बाद भी सभी बच्चों के लिए अभी तक न तो बेंच-डेस्क की व्यवस्था की जा सकी है और न ही गरिमापूर्ण ढंग से बैठकर खाने का इंतज़ाम हो सका है (धूल-मिट्टी में बैठकर सीखने और भोजन करने की परिस्थितियाँ बाल-गरिमा का मर्दन करके उन्हें उनके दलित होने का एहसास कराती हैं)। लेकिन इन प्राथमिक और बेहद ज़रूरी सवालों को बेपरवाही से अनुत्तरित छोड़कर वंचित समूह के बच्चों का नाम काटे जाने के प्रति क्यों तत्परता दिखायी गयी, इसका जवाब अपर मुख्य सचिव के उस पत्र से ही मिलता है, जिसमें 10 प्रतिशत बच्चों का नाम काटकर DBT के मद में खर्च होने वाली राशि को बचाने की बात कही गयी है। अर्थात् बच्चों को पढ़ाने की मंशा अब पढ़ाई के मद में कटौती करने की मंशा पर शिफ्ट हो गयी है।
अब शिक्षकों की बात करते हैं कि किस तरह उनके साथ असंवैधानिक व्यवहार हो रहे हैं और किस तरह उनके उत्पीड़न और मान-मर्दन के अशैक्षिक और अमानवीय आदेश जारी हो रहे हैं।
संविधान के भाग 3, जिसमें मौलिक अधिकारों का उल्लेख है, के अनुच्छेद 19.1.ग में संघ बनाने का अधिकार दिया गया है। इसी अनुच्छेद के उप अनुच्छेद 4 में यह स्पष्ट किया गया है कि यह संघ भारत की अखंडता, संप्रभुता, लोकव्यवस्था, सदाचार और वैधानिक व्यवस्था पर दुष्प्रभाव डालने वाला न हो। इस तरह अपने सामूहिक हितों की रक्षा करने के लिए संघ बनाना और चलाना संविधान-सम्मत मौलिक अधिकार है और इसी संविधान-प्रदत्त मौलिक अधिकार के कारण कर्मचारियों और मज़दूरों के विभिन्न संगठन, संघ और ट्रेड यूनियंस बने हुए हैं। यह मौलिक अधिकार भी अनुच्छेद 13(2) तथा 368(3) और (4) के अनुसार अपरिवर्तनीय और अनुल्लंघनीय है।
परंतु कन्हैया प्रसाद श्रीवास्तव, निदेशक माध्यमिक शिक्षा की संचिका संख्या 11/वि 11-228/2023/2402, दिनांक 28-11-2023 के द्वारा बिहार के तमाम शिक्षक संघों की मान्यता समाप्त किए जाने की घोषणा कर दी गयी। इसी आशय के पत्र प्राथमिक और विश्वविद्यालय शिक्षक संघों के बारे में भी निर्गत किए गए। यह जानते हुए कि संवैधानिक अधिकारों, उसमें भी मौलिक अधिकारों की अवहेलना किसी भी सूरत में नहीं की जा सकती है, बिहार में ऐसा किया गया है। इतना ही नहीं, इसी आदेश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर भी लगाम लगा दी गयी है कि कोई शिक्षक न तो किसी ऐसी गोष्ठी या बहस में भाग लेगा, न साक्षात्कार देगा और न ही सोशल मीडिया पर कुछ लिखेगा-बोलेगा, यहाँ तक कि लाइक भी नहीं करेगा, जो सरकार के इन असंवैधानिक आदेशों के विरुद्ध हो या उनके उत्पीड़न की अभिव्यक्ति हो।इस असंवैधानिक और अलोकतांत्रिक आदेश के उल्लंघन में स्कूल से लेकर विश्वविद्यालयों तक दर्जनों शिक्षकों को बर्खास्त करने या वेतन बंद करने की दमनात्मक कार्रवाई के द्वारा एक ख़ौफ़ज़दा खामोशी क़ायम कर दी गयी है। राजकीय तानाशाही के द्वारा मौलिक अधिकारों को समाप्त किए जाने की यह कार्रवाई लोकतंत्र के लिए गंभीर चिंता का विषय है।
बात केवल इतनी नहीं है। निर्णय लेने की शक्तियों का विकेंद्रीकरण लोकतंत्र की बहुत बड़ी ख़ूबसूरती है। यह लोकतंत्र की उदात्तता और जीवंतता का पैरामीटर होता है। पहले प्रत्येक ज़िला अपनी-अपनी भू-सांस्कृतिक आवश्यकताओं के अनुसार अपने-अपने ज़िलों की छुट्टियाँ तय करते थे और प्रत्येक विद्यालय अपनी-अपनी रूटीन बनाते थे। परंतु अब इन दोनों बातों को राज्य सचिवालय के अधीन करके केन्द्रीकृत कर दिया गया है। इससे ज़िले की भू-सांस्कृतिक भिन्नताओं और विद्यालयों की स्थानीय व्यवस्थाओं को नकारकर लोकतांत्रिक प्रक्रिया को क्षतिग्रस्त किया गया है। बात यह छोटी लग सकती है, परंतु इस आदेश में लोकतंत्र के प्रति अविश्वास की गंध है। ऐसे ही अध्यातव्य आदेशों से लोकतंत्र सिकुड़ता जाता है और तानाशाही सारी बागडोर अपने हाथ में थामकर बेबाक़ अंदाज़ में स्थापित हो जाती है। इसलिए यह बात केवल एक विभाग के आदेश-निर्देश की नहीं है, बल्कि लोकतंत्र के क्षरण का प्रश्न है।
अब तक हुए अध्ययन और अनुभव यह नहीं प्रमाणित करते हैं कि शिक्षण की अवधि बढ़ाकर बच्चों को सीखने का अधिक अवसर दिया जा सकता है। इसके उलट अनेक अध्ययन यह बताते हैं कि औपचारिक शिक्षण में अधिक समय देना बच्चे के शारीरिक, सामाजिक, व्यावहारिक और संज्ञानात्मक विकास में बाधक होता है, क्योंकि बच्चा पाठ्यवस्तुओं से सीखने की चहारदीवारी से घिरा होता है, जबकि पाठ्यपुस्तकों और स्कूल के परिसर से कहीं ज़्यादा बड़ी दुनिया उसे व्यावहारिक सीख का अवसर देने की प्रतीक्षा कर रही होती है। भारतीय छात्र वैसे भी OECD (आर्थिक सहयोग और विकास संगठन) के देशों की तुलना में 130 घंटे अधिक स्कूल में बिताते हैं। (~https://timesofindia-indiatimes-com~) बिहार के विद्यालयों में 253 दिन कार्यदिवस (60 दिन अवकाश + 52 रविवार = 112 दिन अवकाश। वर्ष के कुल 365 दिन – 112 दिन अवकाश = 253 दिन कार्यदिवस) पहले से ही लागू है। फिर उसमें प्रतिदिन 1 घंटा की बढ़ोत्तरी करके शिक्षा अधिकार के अनुसार निर्धारित वार्षिक 800 घंटे के बदले 2024 घंटा (प्रतिदिन 8 घंटा X 253 दिन कार्यदिवस = 2024 घंटा) कर दिया गया है, अर्थात् शिक्षा अधिकार के मानक से लगभग ढाई गुना ज़्यादा!
सुबह 9 बजे से आये हुए बच्चे के शाम 5 बजे तक रुकने में तीन तरह की बाधाएँ हैं। पहली तो यह कि मुख्य कक्षा संचालन के बाद भी शाम 5 बजे तक जिन बच्चों को पढ़ाई में पिछड़े हुए के नाम पर रोककर रखा जाता है, वे स्वाभाविक रूप से हीनता-बोध के शिकार होते हैं कि अपने अन्य कक्षा-साथियों की अपेक्षा कमजोर क्षमता के हैं। बचपन की नींव में ही डाल दिया गया यह हीनता-बोध आजीवन उनके व्यक्तित्व को नियंत्रित-निर्धारित करता रहेगा। पहले भी ग्रीष्मावकाश में पिछड़े हुए बच्चों के लिए विशेष कक्षा-संचालन पर पटना हाईकोर्ट ने इसी आधार पर रोक लगा दी थी। बच्चे कमजोर न रह जायें, इसके लिए शिक्षण से सीखने की ओर बढ़ने की रणनीति अपनाने के बदले बच्चों के गौरव-बोध के हनन का रास्ता ढूँढ लिया गया है। दूसरी बात यह कि जिन बच्चों को शाम 5 बजे तक रोककर रखा जाता है, उनके लिए भोजन की कोई व्यवस्था नहीं होती है। इस तरह उन्हें भूखे रखना अमानवीय प्रताड़ना है और उनके कुपोषण को बढ़ावा देना है। तीसरी बात असुरक्षा की है, जिसकी अब तक अनेक बच्चे-बच्चियाँ और शिक्षक-शिक्षिकाएँ शिकार हो चुकी हैं। इस तरह शाम 5 बजे तक कक्षा-संचालन न केवल शिक्षा-अधिकार के प्रावधानों की अनदेखी है, न केवल वंचित बच्चों के कुपोषण को बढ़ावा देना है और न केवल बच्चों और शिक्षकों की शारीरिक-मानसिक प्रताड़ना है, बल्कि असुरक्षा की स्थिति में जबरन ढकेल देने का अपराध भी है। यह शिक्षण में समावेशन के सिद्धांत के भी विरुद्ध है।
दमन और उत्पीड़न के सारे हथियार चलाने के बाद, शिक्षा में निजीकरण नहीं, बल्कि शिक्षा के निजीकरण की अभूतपूर्व राह निर्मित की गयी है। कम-से-कम मानदेय देने की शर्त पर स्कूल से लेकर विश्वविद्यालय तक शिक्षकों की सप्लाई के लिए निविदा निकाली गयी। अब असिस्टेंट प्रोफेसर, एसोसिएट प्रोफेसर, प्रोफेसर और प्रोफेसर ऑफ़ एक्सलेंस की सप्लाई भी ठेकेदार एजेंसी ही करेगी। निविदा भरने वाली कंपनियों ने शिक्षकों की सप्लाई शुरू भी कर दी है। अब ये शिक्षक और प्रोफेसर सरकारी और विश्वविद्यालय के कर्मी नहीं, बल्कि अपने सप्लायर के कर्मी होंगे। बेरोज़गारी से ‘त्राहिमाम’ करते हुए हज़ारों युवक इसमें भी भर्ती होंगे ही, ‘अग्निवीर’ की तरह। इस तरह, धीरे-धीरे, पूरी शैक्षिक व्यवस्था का निजीकरण और अनौपचारीकरण हो जाएगा। असल में इसी निजीकरण और अनौपचारीकरण की राह को आसान बनाने के लिए इतनी दमनात्मक पृष्ठभूमि तैयार की गयी है।
यह बात दिखती तो बच्चों और शिक्षकों की है। लेकिन मूल में यह बात राजसत्ता के चरित्र की है। लोकतंत्र में जीवनी शक्ति के रूप में विद्यमान प्रतिरोध की क्षमता जब क्षीण हो जाती है तो राजसत्ता मदांध साँढ की तरह संविधान और क़ानून की दीवारों को तोड़कर सबको कुचलने लगती है। अभी यह मदांध राजसत्ता वंचितों के बच्चों और निरीह शिक्षकों को कुचल रही है। राजसत्ता की यही प्रवृत्ति कल अन्य कर्मचारियों और आम नागरिकों को कुचलेगी। क्योंकि हम मौन और समर्थन की संस्कृति के वाहक-पोषक जो हो गये हैं!